Monday, May 19, 2014

अनमोल जैविक खाद -वर्मीकम्‍पोस्‍ट (केंचुआ खाद)

अनमोल जैविक खाद
वर्मीकम्‍पोस्‍ट (केंचुआ खाद)
मिट्टी की उर्वरता एवं उत्‍पादकता को लंबे समय तक बनाये रखने में पोषक तत्‍वों के संतुलन का विशेष योगदान है, जिसके लिए फसल मृदा तथा पौध पोषक तत्‍वों का संतुलन बनाये रखने में हर प्रकार के जैविक अवयवों जैसे- फसल अवशेष, गोबर की खाद, कम्‍पोस्‍ट, हरी खाद, जीवाणु खाद इत्‍यादि की अनुशंसा की जाती है वर्मी कम्‍पोस्‍ट उत्‍पादन के लिए केंचुओं को विशेष प्रकार के गडढों में तैयार किया जाता है तथा इन केचुओं के माध्‍यम से अनुपयोगी जैविक वानस्पितिक जीवांशो को अल्‍प अवधि में मूल्‍याकन जैविक खाद का निर्माण करके, इसके उपयोग से मृदा के स्‍वास्‍थ्‍य में आशातीत सुधार होता है एवं मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ती है जिससे फसल उत्‍पादन में स्थिरता के साथ गुणात्‍मक सुधार होता है इस प्रकार केंचुओं के माध्‍यम से जो जैविक खाद बनायी जाती है उसे वर्मी कम्‍पोस्‍ट कहते हैं। वर्मी कम्‍पोस्‍ट में नत्रजन फास्‍फोरस एवं पोटाश के अतिरिक्‍त में विभिन्‍न प्रकार सूक्ष्‍म पोषक तत्‍व भी पाये जाते हैं।
वर्मी कम्‍पोस्‍ट के लाभ
(1) जैविक खाद होने के कारण वर्मीकम्‍पोस्‍ट में लाभदायक सूक्ष्‍म जीवाणुओं की क्रियाशीलता अधिक होती है जो भूमि में रहने वाले सूक्ष्‍म जीवों के लिये लाभदायक एवं उत्‍प्रेरक का कार्य करते हैं।
(2) वर्मीकम्‍पोस्‍ट में उपस्थित पौध पोषक तत्‍व पौधों को आसानी से उपलब्‍ध हो जाते हैं।
(2)
(3) वर्मीकम्‍पोस्‍ट के प्रयोग से मृदा की जैविक क्रियाओं में बढ़ोतरी होती है।
(4) वर्मीकम्‍पोस्‍ट के प्रयोग से मृदा में जीवांश पदार्थ (हयूमस) की वृद्धि होती है, जिससे मृदा संरचना, वायु संचार तथा की जल धारण क्षमता बढ़ने के साथ-साथ भूमि उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है।
(5) वर्मीकम्‍पोस्‍ट के माध्‍यम से अपशिष्‍ट पदार्थो या जैव उपघटित कूड़े-कचरे का पुन: चक्रण (Recycling) आसानी से हो जाता है।
(6) वर्मीकम्‍पोस्‍ट जैविक खाद होने के कारण इससे उत्‍पादित गुणात्‍मक कृषि उत्‍पादों का मूल्‍य अधिक मिलता है।
वर्मीकम्‍पोस्‍ट उत्‍पादन के लिए आवश्‍यक अवयव
(1) केंचुओं का चुनाव – एपीजीक या सतह पर निर्वाह करने वाले केंचुए जो प्राय: भूरे लाल रंग के एवं छोटे आकार के होते है, जो कि अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थो को विघटित करते है।
(2) नमी की मात्रा – केंचुओं की अधिक बढवार एवं त्‍वरित प्रजनन के लिए 30 से 35 प्रतिशत नमी होना अति आवश्‍यक है।
(3) वायु – केंचुओं की अच्‍छी बढ़वार के‍ लिए उचित वातायन तथा गड्ढे की गहराई ज्‍यादा नहीं होनी चाहिए।
(4) अंधेरा – केंचुए सामान्‍यत: अंधेरे में रहना पसंद करते हैं अत: केचुओं के गड्ढों के ऊपर बोरी अथवा छप्‍पर युक्‍त छाया या मचान की व्‍यवस्‍था होनी चाहिए।
(5) पोषक पदार्थ – इसके लिए ऊपर बताये गये अपघटित कूड़े-कचरे एवं गोबर की उचित व्‍यवस्‍था होनी चाहिए।
केंचुओं में प्रजनन – उपयुक्‍त तापमान, नमी खाद्य पदार्थ होने पर केंचुए प्राय: 4 सप्‍ताह में वयस्‍क होकर प्रजनन करने लायक बन जाते है। व्‍यस्‍क केंचुआ एक सप्‍ताह में 2-3 कोकून देने लगता है एवं एक कोकून में 3-4 अण्‍डे होते हैं। इस प्राकर एक प्रजनक केंचुए से प्रथम 6 माह में ही लगभग 250 केंचुए पैदा होते है।
वर्मीकम्‍पोस्‍ट के लिए केंचुए की मुख्‍य किस्‍में-
(1) आइसीनिया फोटिडा
(2) यूड्रिलस यूजीनिया
(2)
(3) पेरियोनेक्‍स एक्‍जकेटस
गड्ढ़े का आकार – (40’x3’x1’) 120 घन फिट आकार के गढ्ढे से एक वर्ष में लगभग चार टन वर्मीकम्‍पोस्‍ट प्राप्‍त होती है। तेज धूप व लू आदि से केंचुओं को बचाने के लिए दिन में एक- दो बाद छप्‍परों पर पानी का छिड़काव करते रहे ताकि अंदर उचित तापक्रम एवं नमी बनी रहे।
वर्मी कम्‍पोस्‍ट बनाने की विधि- उपरोक्‍त आकार के गड्ढों को ढंकने के‍ लिए 4 -5 फिट ऊंचाई वाले छप्‍पर की व्‍यवस्‍था करें, (जिसके ढंकने के लिए पूआल/ टाट बोरा आदि का प्रयोग किया जाता है) ताकि तेज धूप, वर्षा व लू आदि से बचाव हो सके। गड्ढे में सबसे नीचे ईटो के टुकडो छोटे पत्‍थरों व मिट्टी 1-3 इंच मोटी त‍ह मिछाएं।
गड्ढा भरना – सबसे पहले दो-तीन इंच मोटी मक्‍का, ज्‍वार या गन्‍ना इत्‍यादि के अवशेषों की परत बिछाएं। इसके ऊपर दो- ढाई इंच मोटी आंशिक रूप के पके गोबर की परत बिछाएं एवं इसके ऊपर दो इंच मोटी वर्मी कम्‍पोस्‍ट जिसमें उचित मात्रा कोकुन (केचुए के अण्‍डे) एवं वयस्‍क केंचुए हो, इसके बाद 4-6 इंच मोटी घास की पत्तियां, फसलों के अवशेष एवं गोबर का मिश्रण बिछाएं और सबसे ऊपर गड्ढे को बोरी या टाट आदि से ढक कर रखें। मौसम के अनुसार गड्ढों पर पानी का छिड़काव करते रहें। इस दौरान गड्ढे में उपस्थित केंचुए इन कार्बनिक पदार्थो को खाकर कास्टिंग के रूप में निकालते हुए केंचुएं कड्रढे को ऊपरी सतह पर आने लगते है। इस प्रक्रिया में 3-4 माह का समय लगता है। गड्ढे की ऊपरी सतह का कालो होना वर्मी कम्‍पोस्‍ट के तैयार होने का संकेत देता है। इसी प्रकार दूसरी बार गड्ढा भरने पर कम्‍पोस्‍ट 2-3 महीनों में तैयार होने लगती है।
उपयोग विधि – वर्मी कम्‍पोस्‍ट तैयार होने के बाद इसे खुली जगह पर ढेर बनाकर छाया में सूखने देना चाहिए परन्‍तु इस बात का ध्‍यान रहे कि उसमें नमी बने। इसमें उपस्थित केंचुए नीचे की सतह पर एकत्रित हो जाते है। जिसका प्रयोग मदर कल्‍चर के रूप में दूसरे गड्ढे में डालने के लिए किया जा सकता है। सूखने के पश्‍चात वर्मीकम्‍पोस्‍ट का उपयोग अन्‍य खादों की तरह बुवाई के पहले खेत/वृक्ष के थालों में किया जाना चाहिए। फलदार वृक्ष – बड़े फलदार वृक्षों के लिए पेड़ के थालों में 3-5 किलो वर्मीकम्‍पोस्‍ट मिलाएं एवं गोबर तथा फसल अवशेष इत्‍यादि डालकर उचित नमी की व्‍यवस्‍था करें।
सब्‍जी वाली फसलें- 2-3 टन प्रति एकड़ की दर वर्मीकम्‍पोस्‍ट खेत में डालकर रोपाई या बुवाई करें।
मुख्‍य फसलें – सामान्‍य फसलों के लिए भी 2-3 टन वर्मी कम्‍पोस्‍ट उपयोग बुवाई के पूर्व करें।

Saturday, April 12, 2014

कीटनाशक खुद तैयार करें



कीटनाशक खुद तैयार करें

युवा लोगो की ज़िन्दगी बचाने के लिए शराबखाने सहित समस्त नशीले सामानों की बिक्री हमेशा के लिए बंद किया जाये। नारी जाति की जिन्दगी बचाने के लिए वेश्यालय सहित समस्त असलीलता को परदर्शित करने वाले टीवी, अख़बार, इन्टरनेट तथा फिल्मो को पूर्ण रूप से बंद किया जाये। गौमाता की जिन्दगी बचाने के लिए सभी कत्लखानो को बंद किया जाये तथा उनके भोजन के लिए समस्त गोचर भूमि को खाली किया जाये। किसानो की जिन्दगी बचाने के लिए रासानिक खादों और जहरीली कीट नाशको को बंद किया जाये तथा अंग्रेजो से लेकर अबतक जिंतनी भी ज़मीनों को किसानो से छिना गया है उन ज़मीनों को किसानो को वापस किया जाये। गंगा ,यमुना सहित समस्त नदियों को बांध और नाला मुक्त किया जाये।देश को बचाने के लिए सारी विदेशी कंपनियों को बंद किया जाये। अगर आप ये चाहते है कि ये सब भारत की धरती पर बंद हो जाये तो आप भारतीय आज़ाद सेना से जुड़े और इण्डिया को भारत बनाने में हमारी मदद करे जय हिन्द जय भारत

जैविक कीटनाशक दवाएं किसानों घर में खुद बना सकें वो भी कम से कम खर्च में
कीटनाशक किसी प्रकार से हम कीटनाशक भी खुद तैयार कर सकते क्या हैं ?
farmerबाजार से किसी विदेशी कम्पनी का 15000 रूपए लीटर का कीटनाशक लाने से अच्छा है इन देसी गौमाता या देसी बैले के मूत्र से ही कीटनाशक बना सकते हैं । अगर किसी फसल में कोर्इ कीट या जंतु लग गया, उसको खत्म करना है, मारना है तो उसके लिए एक सूत्र आप लिख लीजिए कि कीटनाशक बनाना भी बेहद आसान है, कोर्इ भी किसान भार्इ अपने घर में बना सकते हैं ।
कीटनाशक बनाने के लिए क्या करना पड़ता है ?
एक एकड़ खेत के लिए अगर कीटनाशक तैयार करना है तो ः-
1) 20 लीटर किसी भी देसी गौमाता या देसी बैले का मूत्र चाहिए।
2) 20 लीटर मूत्र में लगभग ढार्इ किलो ( आधा किलो कम या ज्यादा हो सकता है ) नीम की पत्ती को पीसकर उसकी चटनी मिलाइए, 20 लीटर मूत्र में। नीम के पत्ते से भी अच्छा होता है नीम की निम्बोली की चटनी ।
3) इसी तरह से एक दूसरा पत्ता होता है धतूरे का पत्ता। लगभग ढार्इ किलो धतूरे के पत्ते की चटनी मिलाइए उसमें।
4) एक पेड़ होता है जिसको आक या आँकड़ा कहते हैं, अर्कमदार कहते हैं आयुर्वेद में। इसके भी पत्ते लगभग ढार्इ किलो लेकर इसकी चटनी बनाकर मिलाए।
5) जिसको बेलपत्री कहते हैं, जिसके पत्र आप शंकर भगवान के उपर चढ़ाते हैं । बेलपत्री या विल्वपत्रा के पते की ढार्इ किलो की चटनी मिलाए उसमें।
6) फिर सीताफल या शरीफा के ढार्इ किलो पतो की चटनी मिलाए उसमें।
7) आधा किलो से 750 ग्राम तक तम्बाकू का पाऊडर और डाल देना।
इसमें 1 किलो लाल मिर्च का पाऊडर भी डाल दें ।
9) इसमे बेशर्म के पत्ते भी ढार्इ किलो डाल दें ।
तो ये पांच-छह तरह के पेड़ों के पत्ते आप ले लो ढार्इ- ढार्इ किलो। इनको पीसकर 20 लीटर देसी गौमाता या देसी बैले मूत्र में डालकर उबालना हैं, और इसमें उबालते समय आधा किलो से 750 ग्राम तक तम्बाकू का पाऊडर और डाल देना। ये डालकर उबाल लेना हैं उबालकर इसको ठंडा कर लेना है और ठंडा करके छानकर आप इसको बोतलों में भर ले रख लीजिए। ये कभी भी खराब नहीं होता। ये कीटनाशक तैयार हो गया। अब इसको डालना कैसे है? जितना कीटनाशक लेंगे उसका 20 गुना पानी मिलाएं। अगर एक लीटर कीटनाशक लिया तो 20 लीटर पानी, 10 लीटर कीटनाशक लिया तो 200 लीटर पानी, जितना कीटनाशक आपका तैयार हो, उसका अंदाजा लगा लीजिए आप, उसका 20 गुना पानी मिला दीजिए। पानी मिलकर उसको आप खेत में छिड़क सकते हैं किसी भी फसल पर। इसको छिड़कने का परिणाम ये है कि दो से तीन दिन के अंदर जिस फसल पर आपने स्प्रै किया, उस पर कीट और जंतु आपको दिखार्इ नहीं देगें, कीड़े और जंतु सब पूरी तरह से दो-तीन दिन में ही खत्म हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। इतना प्रभावशाली ये कीटनाशक बनकर तैयार होता है। ये बड़ी-बड़ी विदेशी कम्पनियों के कीटनाशक से सैकड़ों गुणा ज्यादा ताकतवर है और एकदम फोकट का है, बनाने में कोर्इ खर्चा नहीं । देसी गौमाता या देसी बैले का मूत्र मुफ्त में मिल जाता है, नीम के पत्ते, निम्बोली, आक के पत्ते, आडू के पत्ते- सब तरह के पत्ते मुफ्त में हर गाँव में उपलब्ध हैं। तो ये आप कीटनाशक के रूप में, जंतुनाशक के रूप में आप इस्तेमाल करें ।
बीज संस्कार करने के लिए छोटा सा सूत्र
बीजबीज संस्कार करने के लिए छोटा सा सूत्र क्या हैं ?
तीसरी जानकारी आपको देना चाहता हूँ कि अच्छी फसल लेने के लिए जो बीज आप खेत में डालते हैं, उस बीज को आप पहले संस्कारित करिए, फिर मिट्टी में डालिए। बीज संस्कार करने के लिए छोटा सा सूत्र बताना चाहता हूँ।
मान लीजिए आपको गेहूँ का बीज लगाना हैं। तो बीज ले लीजिए एक किलो। एक किलो बीज के अनुसार में ये सूत्र बता रहा हूँ। अगर बीज दो किलो है तो सबको दुगुना कर लीजिएगा।
एक किलो किसी भी देसी गौमाता या देसी बैल का गोबर ले लीजिए और उसी देसी गौमाता या देसी बैल का एक किलो मूत्र ले लीजिए। गोबर और मूत्र को आपस में मिला दीजिए। फिर इसमें 100 ग्राम कलर्इ चूना मिलाना है, कलर्इ चूना। चूने का पत्थर बाजार में मिल जाता है आसानी से। उस चूने के पत्थर को एक दिन पहले पानी में डाल दीजिए 2-3 लीटर पानी में। रातभर में को पानी गरम हो जाएगा, फिर वो चूना शांत हो के नीचे बैठ जाएगा। फिर इसको घोल लीजिए। फिर इस 2-3 लीटर चूने वाले पानी को गोबर और गोमूत्र वाले पात्र या बर्तन में डाल दीजिए। तो गोबर-गोमूत्र और सौ ग्राम चूने में जितना घोल तैयार होगा उसमें अच्छे से बीज को डाल दीजिए। कोर्इ भी बीज एक किलो इसमें आराम से भींग जाता है। बीज को इसमें 2-3 घंटे डालकर रखिए। रात में डाल दीजिए, सुबह से निकाल लीजिए। निकालकर इस बीज को छाँव में सूखा दीजिए और छाँव में सूखाने के बाद आप इसको खेत की मिट्टी में लगा दीजिए। तो जो ये बीज लगेगा मिट्टी में, ये संस्कारित हो गया।
इस संस्कारित बीज से क्या फायदे होगा ?
इस संस्कारित बीज के दो फायदे हैं। एक तो फसल पर जल्दी कोर्इ कीट-कीड़ा नहीं लगेगा। तो कीटनाशक-जंतुनाशक से आपको मुक्ति मिल गर्इ, दुसरा फसल का उत्पादन भी अच्छा हो गया। तो बीज संस्कारित करने का एक सूत्र है, कीटनाशक बनाने का एक सूत्र है और खाद बनाने का एक सूत्र हैं, इन तीन बताए गए सूत्रों का भरपूर आप प्रयोग अपने खेत में करिए और अपने किसान मित्रों को ज्यादा से ज्यादा बताइए। मेरा आपसे एक छोटा सा निवेदन है कि इस वर्ष अपने खेत के एक एकड़ में से करके देखिए और एक एकड़ में आपने अगर ये करके देखा तो इसका परिणाम अच्छा आया तो अगले वर्ष पूरे खेत में करिए। और ज्यादा अच्छा आया तो पूरे गाँव के खेत में कराइए, फिर पूरे जिले के खेतों में करा दीजिए। गाँव-गाँव जाकर आप ये गोबर -गोमूत्र का सूत्र किसानों को सिखाना शुरू कर दीजिए, उसी तरह जैसे योग और प्राणायाम सिखाते हैं आप गाँव-गाँव जाकर। तो योग और प्राणायाम से शरीर दुरूस्त हो जाएगा और गोबर-गोमूत्र की खाद से उनका खेत अच्छा हो जाएगा। उनकी मिट्टी अच्छी हो जाएगी, तो सोने पे सुहागे की सिथति बन जाएगी। इधर शरीर स्वस्थ हुआ, उधर मिट्टी स्वस्थ हुर्इ और उसमें से पैदा हुआ अनाज स्वस्थ मिला, उसमें से सबिजयाँ, घास-चारा स्वस्थ मिला। घास चारा जानवर खाएंगें तो दूध बढ़ेगा और उनकी बिमारियाँ कम होगी। हम स्वस्थ भोजन खाएंगे तो हमारी बिमारियाँ कम होगी और डाक्टर का खर्च बचेगां तो सारी जड़मूल से व्यवस्था का परिवर्तन शुरू हो जाएगा, और मेरा ये मानना है कि एक गाँव में अगर एक किसान भार्इ ने भी यदि ये कर लिया तो एक साल के अन्दर पूरा गाँव इसको कर लेगा ।
किसान स्वंय खाद घर में बना सकता है कम से कम खर्च में
खादखाद बनाने कि विधि ।
एक सरल सूत्र बताता हूँ जिसको भारत में पिछले 12-15 वषों में हजारो किसानों ने अपनाया है और बहुत लाभ उनको हुआ है। एक एकड़ खेत के लिए किसी भी फसल के लिए खाद बानाने कि विधि ।
1) एक बार में 15 किलो गोबर लगता है और ये गोबर किसी भी देसी गौमाता या देसी बैल का ही होना चाहियें। विदेशी या जर्सी गायें का नहीं होना चाहियें ।
2) इसमें मिलायें 15 लीटर मूत्र, उसी जानवर का जिसका गोबर लिया है । दोनों मिला लीजिए प्लास्टिक के एक ड्रम में रख दें ।
3) फिर इसमें एक किलो गुड़ डाल दीजिए और गुड़ ऐसा डाल दीजिए जो गुड़ हम नहीं खा सकते, जानवरी नहीं खा सकते, जो बेकार हो गया हो, वो गुड़ खाद बनाने में सबसे अच्छा काम में आता है। तो एक किलो गुड 15 किलो गोमूत्र, 15 किलो गोबर इसमें डालिए ।
4) फिर एक किलो किसी भी दाल का आटा (बेसन) ।
5) अंत में एक किलो मिट्टी किसी भी पीपल या बरगद के पेड़ के नीचे से उठाकर इसमें डालना ।
ये पाँच वस्तुओं को एक प्लास्टिक के ड्रम में मिला देना, डंडे से या हाथ से मिलाने के बाद इसको 15 दिनों तक छावं मे रखना । पन्द्रह दिनों तक इसका सुबह शाम डंडे से घुमाते रहना। पन्द्रह दिनों में ये खाद बनकर तैयार हो जाएगा । फिर इस खाद में लगभग 150 से 200 लीटर पानी मिलाना । पानी मिलाकर अब जो घोल तैयार होगा, ये एक एकड़ के लिए पर्याप्त खाद है। अगर दो एकड़ के लिए पर्याप्त खाद है तो सभी मात्राओं को दो गुणा कर दीजिए।
अब इसको खेत में कैसे डालना है ?
अगर खेत खाली है तो इसको सीधे स्प्रै कर सकते हैं मिट्टी को भिगाने के हिसाब से। डब्बे में भर-भर के छिड़क सकते हैं या स्प्रै पम्प में भरकर छिड़क सकते हैं, स्प्रै पम्प का नोजर निकाल देंगे तो ये छिड़कना आसान होगा ।
फसल अगर खेत में खड़ी हुई है तो फसल में जब पानी लगाएंगे तो पानी के साथ इसको मिला देना है।
खेत मे यह खाद कब-कब डालनी है ?
इसका आप हर 21 दिन में दोबारा से डाल सकते हैं आज आपने डाला तो दोबारा 21 दिन बाद डाल सकते हैं, फिर 21 दिन बाद डाल सकते हैं। मतलब इसका है कि अगर फसल तीन महीने की है तो कम से कम चार-पांच बार डाल दीजिए। चार महीने की है तो पांच से छह बार डाल दीजिए। 6 महीने की फसल है तो सात-आठ बार डाल दीजिए, साल की फसल है तो उसमें आप इसको 14-15 बार डाल दीजिए। हर 21 दिन में डालते जानला है। इस खाद से आप किसी भी फसल को भरपूर उत्पादन ले सकते हैं – गेहूँ, धन, चना, गन्ना, मूंगफली, सब्जी सब तरह की फसलों में ये डालकर देख गया है। इसके बहुत अच्छे और बहुत अदभुत परिणाम हैं।
सबसे अच्छा परिणाम क्या आता है इसका? आपकी जिंदगी का खाद का जो खर्चा है 60 प्रतिशत, वो एक झटके में खत्म हो गया। फिर दूसरा खर्चा क्या खत्म होता हैं जब आप ये गोबर-गोमूत्र का खाद डालेंगे तो खेत में विष कम हो जाएगा, तो जन्तुनाशक डालना और कम हो जाएगा, कीटनाशक डालना ओर कम हो जाएगा। यूरिया, डी.ए.पी. का असर जैसे-जैसे मिट्टी से कम हो जाएगा, बाहर से आने वाले कीट और जंतु भी आपके खेत में कम होते जाएंगें, तो जंतुनाशक और कीटनाशक डालने का खर्च भी कम होता जाएगा, और लगातार तीन-चार साल ये खाद बनाकर आपने डाल दिया तो लगभग तय मानिए आपके खेत में कोर्इ भी जहरीला कीट और जंतु आएगा नहीं, तो उसको मारने के लिए किसी भी दवा की जरूरत नहीं पड़ेगी तो 20 प्रतिशत जो कीटनाशक का खर्चा था वो भी बच जाएगा। खेती का 80 प्रतिशत खर्चा आपका बच जाएगा। दूसरी बात इस खाद के बारे में ये कि ये सभी फसलों के लिए है। जानवरों का गोबर और गोमूत्र गाँव में आसानी से मिल जाता है। गोबर इकटठा करना तो बहुत आसान है। जानवरों का मूत्र इकटठा करना भी आसान है।
देसी गौमाता या देसी बैल का मूत्र कैसे इकटठा करें ?
सभी देसी गौमाता या देसी बैल का मूत्र देते हैं। आप ऐसा करिए कि उनको बांधने का जो स्थान है वो थोड़ा पक्का बना दीजिए, सीमेंट या पत्थर लगा दीजिए और उस स्थान को थोड़ा ढाल दे दीजिए और फिर उसमें एक नाली बना दीजिए और बीच में एक खडडा डाल दीजिए। तो जानवर जो भी मूत्र करेंगे वो सब नाली से आकर खडडे में इकटठा हो जाएगा। अब देसी गौमाता या देसी बैल के मूत्र की एक विशेषता है कि इसकी कोर्इ एक्सपायरी डेट नहीं है। 3 महीने, एक साल, दो साल, पांच साल, दस साल कितने भी दिन पड़ा रहे खडडे में, वो खराब बिल्कुल नहीं होता। इसलिए बिल्कुल निशचिंत तरीके से आप इसका इस्तेमाल करें, मन में हिचक मत लायें कि ये पुराना है या नया। हमने तो ये पाया है कि जितना देसी गौमाता या देसी बैल का मूत्र पुराना होता जाता है उसकी गुन्वत्ता उतनी ही अच्छी होती जाती है। ये जितने भी मल्टीनेशनल कम्पनियों के जंतुनाशक हैं उन सबकी एक्सपायरी डेट है और उसके बाद भी कीड़े मरते नहीं है और किसान उसको कर्इ बार चख कर देखते हैं कि कहीं नकली तो नहीं है, तो किसान मर जाते हैं, कीड़े नहीं मरते हैं तो मल्टीनेशनल कम्पनियों के कीटनाशक लेने से अच्छा है देसी गौमाता या देसी बैल के मूत्र का उपयोग करना। तो इसको खाद में इस्तेमाल करिए, ये एक तरीका है। लगातार तीन-साल इस्तेमाल करने पर आपके खेत की मिट्टी को एकदम पवित्र और शुदध बना देगा, मिट्टी में एक कण भी जहर का नहीं बचेगा। और उत्पादन भी पहले से अधिक होगा । फसल का उत्पादन पहले साल कुछ कम होगा परन्तु खाद का खर्चा एक हि जाटके मे कम हो जायेंगा और उत्पादन भी हर साल बडता जायेगा ।

Tuesday, January 7, 2014

जैविक खेती से लागत में कमी

जैविक खेती से लागत में 40 फीसदी तक की कमी


कानपुर। रवांलालपुर के राम बिलास ने 500 रुपये खर्च करके खेतों में साबरी किस्म की गाजर बोई। जब उनके खेतों में कुल 32 कुंतल गाजर पैदा हुई तो उनकी खुशी का ठिकाना रहा। आमतौर पर 6 से 8 रुपये प्रति किलो बिकने वाली गाजर की गुणवत्ता इतनी अच्छी थी कि मंडी में उसे 10 रुपये प्रति किलो के भाव से खरीद लिया गया। गाजर की सल से 60 गुना से भी ज्यादा मुनाफा कमाने वाले राम बिलास ने किया सिर्फ  ये था कि अपने खेतों में उन्होंने रासायनिक खादों का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं किया और पूरी खेती जैविक विधि से की।

हरनू में रहने वाले ज्ञान चौरसिया ने भी जैविक खेती की मदद से अपने खेतों में बोये प्याज से तकरीबन 4 हज़ार रुपये ज्यादा मुनाफा कमाया। रासायनिक खादों की जगह जैविक खादों का इस्तेमाल करने से केवल 4 कुंतल ज्यादा प्याज उगा, बल्कि पूरी तरह रोगमुक्त और साफ  सुथरा भी रहा।

जैविक खेती करने में रासायनिक खादों का उपयोग नहीं किया जाता। इसमें गाँव में ही तैयार कम्पोस्ट खाद का उपयोग किया जाता है। यूपी के कुछ गाँवों में तो बीज को शोधित करने के लिए 'अमृत पानी' जैसे देसी नुस्खे भी तैयार किए गए हैं।

गैरसरकारी संगठन श्रमिक भारती में बतौर प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर काम कर रहे उदय प्रकाश उपाध्याय जैविक खेती से किसानों को हो रहे फायदे के बारे में बताते हुए कहते हैं, "जैविक खेती से कसानों की खेती में लागत में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। पहले जहां किसान अपने पड़ोसी किसान से प्रतिस्पर्धा के चलते रासायनिक खादों का खूब प्रयोग करते थे, वहीं अब वह रासायनिक खादों का प्रयोग बहुत कम कर रहे हैं"
सरकार से लेकर तमाम पर्यावरणविद अब जैविक खेती को देश की खेती का भविष्य मान रहे हैं। सरकार की ओर से  एनपीओएफ  नाम की एक राष्ट्रीय परियोजना इसे बढ़ावा देने के लिए चल रही है। साथ ही, राष्ट्रीय हॉर्टिकल्चर मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना नाम से दो अन्य कार्यक्रम भी जैविक खेती पर केंद्रित हैं, जिन्हें सरकार द्वारा सचालित किया जा रहा है।

राष्ट्रीय हॉर्टिकल्चर मिशन के तहत वर्मी कंपोस्ट यूनिट बनाने के लिए सरकार द्वारा 50 फीसदी तक की सब्सिडी दिए जाने का प्रावधान किया गया है, जो कि अधिकतम 30 हज़ार तक हो सकती है। जैविक खेती अपनाने के लिए किसानों को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 10 हज़ार रुपये तक की मदद देने का प्रावधान भी है। इस योजना का लाभ 4 हेक्टेयर तक की जमीन के लिए ले सकते हैं।

शिवराजपुर तहसील के नदीहाखुड़ा गाँव की सुमन एक किसान हैं जिन्होंने जैविक खेती से हुए फायदे को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा है। 'पहले एक बीघे में 2 क्विंटल गेहूं मुश्किल से उगता था। अब पूरे 18 कुंतल उगता है। पूरे 8 गुने का र्क गया है।' वो मुस्कुराते हुए बताती हैं। 


महिलाएं जिन्होंने बदले खेती के तरीके

शिवराजपुर, कानपुर। करीने से संवारे गये सफेद हो रहे बाल, आंखों में एक मोटा सा चश्मा और उम्र 'सत्तर में एक कम' ये हैं मुन्नी देवी। अपनी उम्र से छोटी 25 से ज्यादा महिला किसानों की इस बैठक में भाग लेने मुन्नी देवी 20 किलोमीटर दूर के एक गाँव बड़ी मनो से आई हैं। ये सारी औरतें यहां इसलिये इकट्ठा हुई हैं कि खेती करने के नये तरीकों पर चर्चा कर सकें। 

कानपुर से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर शिवराजपुर नाम के इस छोटे से कस्बे के दस बाई दस के एक कमरे में बैठी ये 25 औरतें जैविक खेती से जुड़े नये तरीकों पर बात करने लिये यहां हर महीने जमा होती हैं। जैविक खेती के अपने 5-6 साल के अनुभवों को बटोरकर लाई ये ग्रामीण औरतें इस विषय ऐसे बात करती हैं जैसे इन्हें इस पर सालों की विशेषज्ञता हासिल हो।

एकता महिला समिति नाम के संगठन से जुड़ी इन औरतों ने सालों से गांवों में बेकार पड़ी ऊसर ज़मीन को जैविक खेती के नुस्खों और अपनी मेहनत के बूते फि से जिला दिया है। इनमें से कई हैं जो अब अपने खेतों से केवल अपना घर चला रही हैं बल्कि अच्छी खासी कमाई भी कर रही हैं।

2006 में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये गैर सरकारी संगठन श्रमिक भारती द्वारा आजीविका- दो नाम से शुरु की गई परियोजना से जुड़ी औरतों में से एक हैं पडऱहा गांव की सियादुलारी। सियादुलारी बताती हैं, "आजीविका कार्यक्रम से जुडऩे के बाद खेती करने का हमारा तरीका काफी कुछ बदल गया। अब हम स्प्रे मशीन, जीन पाईप जैसे यंत्र प्रयोग करने लगे हैं। धान, गेहूं और मटर की खेती में जैविक विधि से काफ र्क आया है। पहले खेती से जितना पैसा आता था उतना ही खेती में लग जाता था। अब ायदा होना शुरु हुआ है।"

नदीहाखुड़ा गांव की सुमन यू ंतो शान्त स्वभाव की लगती हैं पर जब बोलने पे आती हैं तो लगता है जैसे किसी दल का प्रवक्ता आपसे बात कर रहा हो। वो बताती हैं "जैविक खेती से छोटे किसानों को ज्यादा ायदा हुआ है। हमारे खेतों का पूरा इलाका उसर वाला इलाका था। पर धीरे धीरे हमने सीखा कि खेतों में कौन सी दवा डालनी है, कौन सी नहीं।" जैविक खेती से हुए फायदे को उन्होंने प्रत्यक्ष रुप से देखा है। "पहले एक बीघे में 2 क्विंटल गेहूं मुश्किल से उगता था। अब पूरे 18 क्विंटल उग जाता है। पूरे 8 गुने का र्क गया है।" वो मुस्कुराते हुए बताती हैं।

जैविक खेती के लिये बढ़ते रुझान से डीएपी जैसी महंगी और नुकसानदायक खादों के प्रचलन में भी कमी आई। हरनू गांव में रहने वाली किसान मायादेवी बताती हैं, "हमारे यहां ज्यादातर गेहूं और धान की बुआई होती है। पहले हम खेतों में डीएपी डालते थे। लेकिन जब से जैविक खेती के बारे में सुना तबसे हमने जैविक खाद का इस्तेमाल  करना शुरु किया। इससे अन्तर ये आया कि सलों में रोग लगना कम हो गया और खाने का स्वाद भी बिल्कुल बदल गया।"

गाँवों में अक्सर सलों को बोने का एक पैटर्न होता है। लोग सालों से चले रहे उस परम्परागत तरीके से बाहर नहीं आना चाहते। लेकिन सुमन और उन जैसे कई किसानों ने खेती में सालों से चली रही उन परम्पराओं को तोड़ा। वो बताती हैं "पहले हम गहरी जड़ों वाले पौधे नहीं उगाते थे। धीरे धीरे हमने सल चक्र को अपनाना शुरु किया है। एक खेत में एक से अधिक सलें उगानी शुरु की। जैसे पहले हम खेतों में चना नहीं बोते थे। अब बोने लगे हैं। इससे काफ फायदा हुआ है।"

जैविक खेती के लिए ग्रामीण महिलाओं में आई इस चेतना का असर ये हुआ कि लोगों ने गाँवों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम करना शुरु कर दिया। कम्पोस्ट पिट बनाने के लिये भी उनमें जागरुकता आने लगी। डिब्बा निवादा गांव की शारदा बताती हैं "अकेले हमारे गांव में 7 स्वयंसहायता समूह काम कर रहे हैं। हमने अपने गाँव में कुल 82 कम्पोस्ट पिट खुदवाये हैं। इनमें हम 90 दिन तक घर का कूड़ा कचरा डालते हैं और फि उससे बनी खाद को खेतों में प्रयोग करते हैं। इससे खेतों में जो पैच थे वो बहुत कम हो गये।"

समूह बनाकर जैविक खेती करने का फायदा इन महिलाओं से बात करने पर साफ  दिखाई देता है। खेती के लिये उनकी समझ उनके तकनीकी ज्ञान से ही झलक जाती है। मतौना गांव की ऊषा बताती हैं "हमारे गांव में आज से कुछ साल पहले बिलकुल ऊसर था। पहले होता ये था कि हम गोबर को ढ़ेर लगाकर जमा करते थे। उससे बारिश के दिनों में उसके सारे पोषक तत्व बह जाते थे। गोबर में एक जानवर बुट्टा या मामा का बीज होता है, वो बीज रह जाता था। जब ये खाद हम खेतों में डालते थे तो मामा सल को नष्ट कर देता था और खाद भी कोई खास र्क नहीं डालती थी। गोबर कच्चा रह जाता था और कच्चे गोवर में दीमक लग जाता है जिससे सलों को भारी नुकसान होता था। लेकिन बाद में हमने कम्पोस्ट खाद का प्रयोग करना शुरु किया। इससे बीज कम्पोस्ट के पिट में ही नष्ट हो जाता है। अब सलें अच्छी होने लगी हैं।"

जैविक खेती ने ऊषा जैसे किसानों को केवल खेती में फायदा दिया बल्कि इसका असर उनके परिवार की सेहत में भी पड़ा। ऊषा बताती हैं "पहले खेतों पर तो ज्यादा खर्च होता ही था डॉक्टर पर भी खर्च ज्यादा आता था। खेत जहरीले थे। जैविक खेती से दोनों चीजों में खर्च बच जाता है।"

उन्हत्तर साल की मुन्नी देवी उन किसानों में से हैं जिन्होंने खेती के तौर तरीकों में 'तब से अब तक' कई बदलाव देखे हैं। उनके पास 2 बीघे की जमीन है जिसपर वो अपने परिवार के साथ पिछले 30 साल से खेती कर रही हैं। वो कहती हैं "हमारे वक्त में तो औरतें घूंघट तक नहीं खोल सकती थी खेती तो दूर की बात। पहले नीम की खली, जैविक खाद जैसा कोई कुछ जानता ही नहीं था। अब तो हम भी यहां आकर कम्पोस्ट खाद वगैरह के बारे में जान रहे हैं। हमारे समय से अब तक तो बहुत बदलाव चुका है।"

आज शिवराजपुर तहसील के 30 से ज्यादा गांवों में 500 से ज्यादा महिलाएं और पुरुष जैविक खेती के प्रयोग से अपनी सलों में र्क देख रहे हैं। लेकिन इतने लोगों को जोडऩा कोई आसान काम नहीं होता। गांवों में लोग रिस्क लेने को तैयार नहीं होते। वाकरगंज गांव की राममूर्ति बताती है, "2 साल पहले तक हमें खेती के नये तरीकों के बारे में कोई खास  जानकारी नहीं थी। हमारे गांव में महिलाएं समूह बनाने के लिये  इकट्ठी हो रही थी। पहले तो हम टालते रहे। बाद में जब हमें    शहर से जानकार लोग आकर खेती के   बारे में नई जानकारियां देने लगे      तो हमें लगा कि कुछ अच्छा काम हो रहा है।"

 श्रमिक भारती के स्थानीय संयोजक अरमान अली इन महिलाओं के बीच लम्बे समय से जुड़े हुए हैं। उसर सुधार और जैविक खेती को लेकर शुरु हुई अपनी परियोजनाओं के बारे में गाँव कनेक्शन से हुई उनकी बातचीत के अंश-
सन 2006 में हमने ऊसर सुधार के लिये आजीविका-2 नाम से ये परियोजना शुरु की। गांवों के खेतों में सलों के बीच कई पैच रह जाते थे। हमने इन खेतों को सुधारने के लिए जैविक विधि का इस्तेमाल किया। इसके लिये गांवों में खेतों के पास हमने 1 मीटर गहरे, डेढ़ मीटर चौड़े और ढ़ाई मीटर लम्बे  गड्ढ़े खुदवाये और उनमें घर का सारा कूड़ा-कचरा, घास- ूस वगैरह डलवाया। हमारी इस मुहिम से 30 गांवों की तकरीबन 500 महिलाएं और पुरुष जुड़े। ऐसे गड्ढ़े खुदवाने के लिये हर परिवार को हमने 100 रुपये दिये।
हमने कृषि वानिकी नाम से एक और कार्यक्रम चलाया। आम, नीबू, कटहल वगैरह के लगभग 5 हजार पौंधे इस कार्यक्रम के तहत लगाये गये। गांवों में डीपो बनाये गये। नीम की खली और माईक्रोन्यूट्रेन सुपरएक्शन जैसे उर्वरकों के बारे में किसानों को जागरुक किया गया। परिणाम ये हुआ कि इस वक्त 30 गांवों में हमारे 90 स्वयंसहायता समूह जैविक खेती और खेती से जुड़े अन्य कार्यक्रमों को चला रहे हैं।
अरमान अली
स्थानीय संयोजकश्रमिक भारती


जैविक खेती से ही बचेंगे मित्र कीट और बढ़ेगा मुनाफा


·कानपुर से जुड़े लगभग 30 गाँवों में पिछले कु सालों में जैवि· खेती को ले क नई चेतना आई है। गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) श्रमि भारती ने गाँव की महिलाओं के बीच जैवि खेती को ले  केवल जागरुता अभियान चलाया बल्की उन्हें जैवि खेती की नीकें सिखाईं। इस बारे में एनजीओ के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर उदय प्रका उपाध्याय ने बात की उमेश पंत से :

सवाल-जैविक खेती को लेकर आप किन किन क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और क्या क्या?
जवाब-कानपुर नगर के शिवराजपुर ब्लॉक के 30 गाँवों में केकेएस जर्मनी तथा डब्ल्यू डब्ल्यू एफ  के सहयोग से लगभग 1400 किसानों के साथ स्थायी कृषि तकनीकों पर कार्य किया जा रहा है। किसानों को जैविक विधि से ऊसर सुधार की विधि बताई जा रही है एवं रासायनिक खादों का प्रयोग धीरे धीरे कम करके गोबर की खाद तथा अन्य जैविक खादों के प्रयोग को बढावा दिया जा रहा है। रासायनिक कीटनाशी, खरपतवार नाषी का प्रयोग रोकने एवं स्थानीय स्तर पर तैयार कीट प्रबन्धन हेतु अमृत पानी, नीम तेल तथा नीमखली के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।  गोबर ठीक से सडऩे के कारण खेतों में उसका इस्तेमाल करने पर  खरपतवार और दीमक की बढ़ जाते हैं, जिससे खरपतवार  रोकने में कृषि लागत में बढोत्तरी होती है। किसानों को इस नुकसान से बचाने के लिए कम्पोस्ट पिट बनाने को प्रेरित किया जा रहा है तथा लगभग 900 किसानों ने अपने घरों तथा खेतों में कम्पोस्ट पिट का बनाकर गोबर को उस गड्ढ़े में डालना शुरू किया है जिसके भर जाने पर वे इस गड्ढ़े को 90 से 100 दिनों के लिये ढ़क देते हैं और उसके बाद उस सड़े हुए गोबर की खाद को अपने खेतों में इस्तेमाल करते हैं जिससे उनके खेतों को पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन तथा अन्य पोशक तत्व मिलते हैं और रासायनिक खादों पर होने वाला खर्च कम हो जाता है।

  नीम की खली के प्रयोग को बढावा दिया जा रहा है जिससे किसानों के खेती पर आने वाले खर्च में कमी रही है। नीम की खली से मिट्टी तो शोधित हो ही रही है साथ ही साथ कीट पतंगों आदि से भी किसानों को निजात मिल रही है।

सवाल- इस बीच गांवों में खेती को लेकर क्या बदलाव आये हैं? जैविक खेती ने गांवों की अर्थव्यवस्था में किस तरह से बदलाव  किया है?
जवाब- किसानों की कृषि लागत में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आयी है। पहले जहॉं किसान अपने पड़ोसी किसान से प्रतिस्पर्धा में रासायनिक खादों का प्रयोग करता था वही़ अब वह रासायनिक खादों का प्रयोग बहुत कम कर रहा है। गड्ढ़े की कम्पोस्ट खाद की तरफ  किसानों का रूझान बढ़ा है। किसानों ने सूक्ष्म पोशक तत्वों का प्रयोग  करना शुरू   किया है।

खुद किसान बताते हैं कि जैविक विधि से तैयार उत्पाद  ज्यादा स्थायी, स्वास्थ्यप्रद तथा कम लागत वाला है। इस साल आलू की सल में अंतिम समय में बारिश होने के कारण आम तौर पर किसानों की आलू में सडऩ गयी है, जबकि जिन किसानों ने नीमखली तथा अमृतपानी का प्रयोग किया है उनके आलू में सडऩ नही है आलू स्वस्थ्य निकल रहे हैं। किसानों ने अपनी खेती की लागत में आयी कमी तथा अतिरिक्त आमदनी से अपने परिवार के बच्चों की शिक्षा तथा रहन सहन के स्तर में बढोत्तरी की है।जल संचयन सरंचनाओं के निर्माण से भूगर्भ जल स्तर औसतन लगभग 2 मीटर ऊपर आया है जिससे किसानों का सिंचाई का खर्च और खेती में लगने वाले समय दोनों में कमी आयी है।

सवाल- पारम्परिक खेती से जैविक खेती की ओर महिलाओं के रुझान को आप कैसे    देखते हैं?
जवाब- महिला स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं को संगठित कर उनके परिवारों को आर्थिक स्तर पर मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है। श्रमिक भारती द्वारा संचालित कृषि आधारित परियोजनाओं में इन समूहों का विशेष योगदान होता है। गांव में कृषि निवेशों जैसे, उन्नत किस्म के बीज, सूक्ष्म पोशक तत्व, श्रम में कमी लाने वाले यंत्र, हरी खाद तथा नीम खली तथा नीम तेल आदि की व्यवस्था का काम इन समूहों के संघ (फेडरेशन) को दिया गया है। किसानों से इन कृषि निवेशों का मूल्य लेकर फेडरेशन में रिवाल्विंग फं के तौर पर जमा किया जाता है। इस रिवाल्विविंग फंड से परियोजना समाप्त होने के बाद भी किसानों को कृषि निवेशों का फायदा मिलता रहेगा और इससे फेडरेशन की आय भी होती रहेगी। साल 2011-12 में यह निवेश परियेाजना में उपलब्ध धन से खरीद कर किसानों को मुहैय्या कराया गया और उसकी कीमत किसानों से लेकर फेडरेशन में जमा की गई। साल 2013 में परियेाजना में निवेश का बजट होने के बावजूद भी किसानों को पिछले सालों में तैयार रिवाल्विंग फं से निवेश की व्यवस्था कराई जायेगी।

सवाल- कुछ लोगों के बारे में बताइये जिन्होंने जैविक खेती के जरिये आर्थिक रुप से अच्छा मुनाफ कमाया हो?
जवाब- ज्ञान चौरसिया, हरनू:-पिछले वर्श 12 बिसुवा में प्याज की खेती की जिसमें लगभग 16 कुन्तल प्याज पैदा हुई इसके पहले इनके खेत में प्याज का औसत उत्पादन 18-20 कुन्तल प्रति बीघा होता था वही इस साल केवल 12         बिसुवा में 16 कन्तल उत्पादन रहा। प्याज में किसी भी तरह के रासायनिक   खादों आदि का प्रयोग नही किया गया था। आमतौर पर प्याज जल्दी खराब होना षुरू हो जाती है जबकि इनकी प्याज अंत तक रोगमुक्त रही एवं ज्यादा दिन तक चली। पिछले वर्शो का औसत उत्पादन को देखे तो प्रतिबीधा 1 कुन्तल का उत्पादन होता था इस हिसाब से  इनके 12 बिसुवा खेत में 12 कुन्तल उत्पादन होना चाहिये। इस वर्श 4 कुन्तल अतिरिक्त उत्पादन लिया गया। जिससे लगभग 4000 रूपये का अतिरिक्त लाभ कमाया।

राम बिलास, रवांलालपुर- जैविक विधि से 10 बिसुवा में गाजर की साबरी किस्म की 90 दिन की फसल लगाई इस फसल में कुल लागत 500 रू0 लगाई। रासायनिक खादो का प्रयोग बिल्कुल भी नही किया। कुल 3200 किलोग्राम का उत्पादन हुआ। गाजर का बाजार मूल्य आमतौर पर 6 से 8 रू0 प्रति किलो है जबकि मण्डी में इनकी गाजर की क्वालिटी साइज आदि को देखते हुए 10 रू0 प्रति किलो का रेट मिला। इनकी गाजर की लम्बाई औसतन 6 से 8 इंच रही। पहले इतने ही क्षेत्रफल में औसत उत्पादन लगभग 3000 किलोग्राम होता था।
  इसी तरह से 30 गांवों में किसानो की बहुतायत है मुख्यत: इन कसानों ने उल्लेखनीय आर्थिक मुनाफा                             कमाया। बाबूराम, सोमनाथ, नन्दगोपाल,ओम प्रकाश, बाबूपाल, छोटेलाल, राममूर्ति, सुरेश कुमार आदि लाभार्थी किसान हैं।

सवाल- आमतौर पर ये माना जाता है कि गांवों में लोग खेती के पारंपरिक तरीकों को छोडऩा नहीं चाहते, वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहते, इस बारे में आपके अनुभव?
जवाब- इस परियोजना की शुरुआत में किसानों ने इन विधियों का विरोध किया और यह कहा कि बिना रासायनिक खाद एवं कीटनाषियों के खेती हो ही नहीं सकती। लेकिन जब हमने किसानों को व्यावहारिक रूप से इन तकनीकों को प्रदर्षित करके दिखाया तो धीरे धीरे लोगों ने इन तकनीकों को अपनाना शुरू किया और अब वो इन तकनीकों का खुशी-खुशी इस्तेमाल कर रहे हैं।

सवाल- जैविक खेती अपनाने को क्यों जरुरी मानते हैं आप?
जवाब- रासायनिक खाद के अत्यधिक प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है आज यह हालत है कि किसान जिस मात्रा में खादों का प्रयोग कर रहे हैं उसकी तुलना में उनको उत्पादन नहीं  मिल रहा। रासायनिक खादों एवं कीटनाषियों के प्रयोग से सभी के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आज हर घर में कोई कोई बीमारी का शिकार हो रहा है। खेती के मित्र कीट-पतंगे नष्ट हो चुके है। आज केंचुए, गिद्ध, मेढ़क आदि विलुप्त हो चुके हैं। यह रासायनिक खादों का ही असर है।



अमृतपानी बीजों का पौष्टि आहार

शिवराजपुर तहसील के ग्रामीण इलाकों की महिलाएं जब खेती में प्रयोग करने पे आई तो उन्होंने जितना उनसे उम्मीद की जा सकती है उससे एक कदम आगे बढ़कर प्रयोग कर दिखाये। उन्होंने अमृतपानी नाम का एक ऐसा तरल तैयार किया जिससे बीजों को शोधित करने पर उनमें कीड़े लगने की सम्भावना बहुत कम हो गई। हमने अमृतपानी के बारे में उनसे जानना चाहा तो उन्होंने इसे बनाने की पूरी रेसेपी बता डाली। पेश है ग्रामीण महिला राममूर्ति से बातचीत पर आधारित अमृतपानी बनाने की पूरी विधि-

आवश्यक सामग्री

1 किलो देसी बेसन
1 किलो देसी गाय का मूत्र
1 किलो नीम की पत्ती
250 ग्राम देसी अकोड़ो
250 ग्राम धतूरे की पत्तियां
100 ग्राम लहसुन
100 ग्राम तम्बाकू का चूरन
250 ग्राम देसी गुड़
10 लीटर पानी

बनाने की विधि

इन सब पदार्थों का मिश्रण बनाकर अच्छे से घोल लेते हैं। फि इस मिश्रण को मटके में डालकर मटके का मुंह बंद कर देते हैं ताकि मटके के भीतर जो गैस बने वो बाहर आने पाये। 15 दिन के बाद मटके को खोला जाता है और इस मिश्रण को डन्डे से अच्छी मथ लेने के बाद छान लिया जाता है। छानने के बाद इसे मिटटी के बर्तन से निकालकर किसी और बरतन में रख दिया जाता है।

20 दिन में बनकर तैयार हो जाने वाले अमृतपानी का प्रयोग बीजों को शोधित करने के लिये किया जाता है। इससे शोधित किये हुए बीजों से चमकदार और अच्छी सल उगती है। साथ ही सलों में रोग और कीड़े लगने की सम्भावना भी कम हो जाती है। अमृतपानी का एक लीटर 5 से 10 रुपये तक में बेचा भी जा सकता है।