Saturday, May 18, 2013

टिकाऊ खेती में उपयोगी जैव उर्वरक

टिकाऊ खेती में उपयोगी जैव उर्वरक

भारत एक कृषि प्रधान देश है । जिसकी अधिकतर जनसंख्या गांवों में रहती है जहां अनेक प्रकार के खाधान्नों का उत्पादन होता है । वास्तव में खाध पदार्थों का सीधा संबंध जनसंख्या से है । इस प्रकार जनसंख्या के बढ़ने के साथ साथ ये आवश्यक हो गया है कि खाधानों का उत्पादन भी बढाया जाए अतः घास के मैदान एवं जंगलों से काट कर भूमि को अधिक ऊपजाऊ बनाया जा रहा है ताकि खाधानों की उत्पादकता को बढाया जा सके लेकिन प्रदुषण मृदा अपरदन जैसी समस्याएं सामने आ रही है।
यदि हम पृथ्वी पर पाये जाने वाले पौधों की जैविक कियाओं का अध्ययन करें तो पौधों में दो मुख्य कियाएं दिखाई देती है प्रथम प्रकाश संष्लेषण द्वितीय जैविक नाइट्रोजन सिथरीकरण। वास्तव में जीवमण्डल में पाए जाने वाले तत्वों में नाइट्रोजन मुख्य तत्व है जो भूमि की उर्वरा शकित को बढाता है यह कृषि आर्थिक तन्त्र का प्राथमिक तत्व है। पौधे एवं जंतु सीधे ही नाइट्रोजन का उपयोग नहीं कर पाते है।
कृत्रिम उर्वरक में सबसे मुख्य नाइट्रोजन ही है। नाइट्रोजन उर्वरक का निर्माण सामान्य रूप से हैबर बोस प्रक्रम के द्वारा किया जाता है। जिसमें हाइड्रोजन गैस उच्चतम ताप एवं अत्यधिक उर्जा की आवश्यकता होती है। जैव उर्वरक एक जीवित उर्वरक है। जिसमें सूक्ष्मजीव है। जो भूमि में वायुमण्डलीय नाइट्रोजन एवं स्वतंत्र नाइट्रोजन का सिथरीकरण करते हैं। इनमें से बैक्टीरिया कवक नीलहरित शैवाल आजोला जल फर्न आदि हैं।
इस खाद में विशेश प्रकार के जीवाणु होते हैं। जो दलहनी पौधों की जड़ ग्रंथियों में वायुमण्डल से नाइट्रोजन तत्व लेकर समेट लेते हैं या फिर भूमि से अघुलनशील और स्थायी तत्व फास्फोरस को घुलनषील बनाकर उनकी उपलबधता को बढा़ देते हैं तथा कई पौधे वृद्ध हारमोन्स के उत्पादन की गति बढा़ने में सक्षम होते है।

राइजोबियम जैव उर्वरक

राइजोबियम एक मुख्य तत्व जैव उर्वरक है। जो राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम नामक सहजीवी जीवाणु से तैयार किया जाता है। यह जीवाणु प्रारंभ में मिटटी में पाया जाता है । बाद में दलहनी फसलों के पौधों की जड़ों में मूलरोमोंके द्वारा प्रवेश कर जाते हैं। ये जीवाणु पहले जड़ों की कार्टेक्स में प्रवेश करते हैं जो कार्टेक्स कोशाओं में विभाजित होते रहते हैं और कार्टेक्स में ग्रंथियां बना लेते हैं। इन ग्रंथियों में उपस्थित राइजोबियम नाइट्रोजन का भूमि में सिथरीकरण करते हैं। अर्थात स्वतंत्र नाइट्रोजन को अमोनिया में बदल देते हैं।
राइजोबियम जीवाणु खाद का उपयोग मुख्य रूप से दलीय फसलें अरहर उड़द मूंग चना सोयाबीन मूंगफली मटर आदि में किया जाता है । फलीदार फसलों की प्रारंभिक अवस्था में डाली गई 20॰25 किलो प्रति हेक्टेयर उर्वरक नत्रजन मात्रा को छोड़कर फसल का लगभग पूर्ण नत्रजन पोषण इस जीवाणु द्वारा प्रदान किया जाता है । अतः यह आवश्यक है कि दलहनी फसलों की प्रारंभिक अवस्था में फसल को नत्रजन की 20॰25 किलो मात्रा प्रति हेक्टेयर के रूप में पूर्ति करें । दलहनी तिलहनी की फसलों में इस जैव उर्वरक के इस्तेमाल से लगभग 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन का सिथरीकरण होता है ।

प्रयोग विधि

एक लीटर पानी में 125 ग्राम गुड़ का घोल बनाकर ठण्डा करें व इसमें एक पैकेट राईजोबियम कल्चर को मिलो दें । अब इस मिश्रण को बीज की सजयेरी पर छिड़कें एवं इसे स्वस्छ हाथों से इस प्रकार मिलाये की प्रत्येक बीज पर इसकी एक समान परत आ जावे । सामान्यतया 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर 10॰15 किलोग्राम बीज उपचारित करने के लिए पर्याप्त होती है । उपचारित बीजों को किसी साफ बोरी या फर्ष पर फैलाकर छायादार जगह पर सूखा कर तुरन्त बुआई करना चाहिए ।
खड़ी फसल में राइजोबियम कल्चर का उपयोग करने के लिए यदि पूर्व में इसका उपयोग नहीं किया गया है तो एक पैकेट कल्चर को 20॰25 किलोग्राम बारीक मिटटी या कम्पोष्ट में मिलाकर इस मिश्रण को हाथ से पौधों के आसपास दें एवं बाद में गुड़ाई कर मिटटी में मिलाकर सिंचाई करें ।

एजोस्पाइरिलम

भारत में दलहनी एवं तिलहनी फसलों के अलावा मोटा अनाज जैसे मक्का ज्वार अन्य छोटे बीज वाली फसलें उगाई जाती हैं । जिनकी खेती लगभग 62 मिलियन हेक्टेयर में होती है । इन फसलों द्वारा लगभग 90 प्रतिषत भूमि में उर्वरकों का उपयोग पूरी तरह से नहीं होता है । क्योंकि इस भूमि में प्रकृति में मृतजीवी जीवाणु पाये जाते हैं । जो भूमि में नाइट्रोजन सिथरीकरण करते है । यह असहजीवी जीवाणु मृदा में स्वतंत्र रूप से निवास करते हुए वायुमण्डलीय नत्रजन को इकटठा कर पौधों को देता है । यह कल्चर उन फसलों के लिए विशेश रूप से उपयुक्त है । जिन्हें जल भराव वाली या अधिक नमीयुक्त भूमि में उगाया जाता है । विभिन्न शोध परिणामों से यह भी ज्ञात हुआ है कि धान रोपाई से पहले एजोस्पाइरिलम और पी॰एस॰बी॰ के घोल से रोपा धान की जड़ को निवेशित करना मृदा निवेशन की अपेक्षा अधिक लाभप्रद है । जड़ निवेशन में कल्चर की मात्रा कम लगती है तथा उपज में वृद्धि अधिक होती है । एजोस्पाइरिलम द्वारा धान रागी कोदो कुटकी एवं छोटे बीज वाली फसलें लाभानिवत होते हैं ।

एजोटोबेक्टर

एजोटोबेक्टर अतिसूक्ष्म जीवाणु हैं। जो खाधान्न फसलों में नत्रजन सिथर करने का कार्य करते है। एजोटोबेक्टर स्वतंत्र जीवित हेट्रोटोफिक जीवाणु है जो कि मिटटी में उपसिथत रहता है। यह वायुमण्डल की नत्रजन को स्थिर करके पौधों के लिए इस तत्व की उपलब्धता के साथण्साथ यह जीवाणु इण्डोल ऐसिटिक अम्लए जिब्रेलिक अम्ल जैसे वृद्धि हार्मोन्स आदि को उत्सर्जित करके बीजों के अंकुरण एवं जमाव पर अच्छा प्रभाव डालते हैं ।

फास्फोरस स्फुर घोलक जीवाणु पी॰एस॰बी॰

भूमि में बैक्टीरिया एवं कवक अनेक फास्फोरस युक्त यौगिकों का संष्लेषण करते हैं। पौधों की जड़ों में कवक भी पाए जाते हैं। इसको माइकोराइजा कहते हैं। इन माइकोराइजा के कारण जड़ों में फास्फोरस का निर्माण होता रहता है। आधुनिक खोजों के आधार पर माइक्रोफास्फों संवर्धन से भूमि की उर्वरा शकित को बढाया जा रहा है। ये जीवाणु विशेश कार्बनिक अम्लों का उत्पादन करते हैं। जो अघुलनशील स्फुर को घुलनशील बनाने में सहायक होते हैं।

नीले हरे शैवाल

मुख्य सिपसीज ऐना॰ बीना नारस्टाक युलोसिस है। बी॰जी॰ए॰ की सभी सिपसीज नाइट्रोजन का सिथरीकरण नहीं करती है। केवल वही सिपसीज नाइट्रोजन का सिथरीकरण करती है। जिसमें हेटरोसिस्ट होता है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक बिनोग्रेडस्की ने सर्वप्रथम बताया कि नीले हरे शैवाल स्वतंत्र नाइट्रोजन का सिथरीकरण कर सकते है। नीले रहे शैवालों के जैव उर्वरक धान एवं केला की खेती के लिए अति उत्तम है।
जैसा कि इसके नाम से विदित होता है कि यह नीले हरे रंग की होती है जो वायुमण्डलीय नत्रजन का सिथरीकरण कर लगातार नत्रजन प्रदान कराती है। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरक का विकल्प नहीं पूरक है। यह उन मध्यमवर्गीय एवं निम्नवर्गीय कृषकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जो रासायनिक उर्वरकों का उपयोग महंगा होने के कारण उचित मात्रा में नहीं कर पाते।
यधपि नील हरित शैवाल का उत्पादन कई प्रकार से लिया जाता है। जैसे लोहे के ट्रेए पालीथीन चादरों से के कच्चे गड़ों में ईटों व सीमेंट से बने पक्के गडों मेंए पर आर्थिक रूप से पिछड़े छोटे व सीमांत किसानों के लिए ये उपरोक्त सभी विधि खर्चीली होती है। ऐसे लोगों के लिए इंदिरागांधी कृषि विश्वविधालय सिथत मृदा सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग के वैज्ञानिक द्वारा एक विशेश ग्रामीण उत्पादन तकनीक का विकास किया है।

ऐलाजा

ऐलोजा एक जल फर्न है इसका उपयोग जैव उर्वरक के रूप में करते हैं इसके उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। ऐजोला धान की फसल के लिए उपयोगी है यह अम्लीयता शुष्कता एवं बीमारीयों की प्रतिरोधिता को सहन कर सकते हैं। ऐजोला पानी पर तैरती हुई एक फर्न या कई होती है। जिसका रंग गहरा लाल या कत्थई होता है। धान के खेतों में यह अक्सर दिखाई देती है। छोटे॰छोटे पोखर या तालाबों में जहां पानी एकत्रित होता है वहां पानी सतह पर यह दिखाई देती है ।

कम्पोष्ट कुड़े करकट गोबर॰कुड़े की खाद तैयार करने की विधियां

मनुष्य ने जब से खेती करना प्रारंभ किया और खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार की खादों का उपयोग किया उनमें गोबर कुड़े की खाद सबसे पुरानी है। इसमें मुख्यत वनस्पति सामग्री और पषुओं का गोबर॰मुत्र तथा बिछाली होता है।
पशु के गोबर में नाइट्रोजनए फास्फोरस अम्ल और पोटाश की मात्रा अनेक बातों पर निर्भर है जैसे पशु की आयु किस्म नस्ल शारीरिक दषा दाना चारा आदि ।
भारत में गोबर कुड़े की खाद की काफी मात्रा उपलब्ध हो सकती है अतः जब तक इंधन हेतु गैर परम्परागत स्त्रोतों का उपयोग नहीं होगा तब तक देशी खाद को पोषक तत्वों के स्त्रोत के रूप में उपयोग में लाना कठिन है। इसके लिए हमें बंजर भूमि पर कृषि वानिकी अपनाने की आवश्यकता है। जिससे कि रसोई के लिए इंधन प्राप्त हो सके और फलस्वरूप गोबर व फसल अवशेश को देशी खाद के रूप में फिर से भूमि की उपजाऊ शक्ति को बनाने के लिए खेत तक पहुंचाया जा सके ।
विभिन्न प्रयोगों द्वारा यह भी देखा गया है कि गोबर की खाद कम्पोष्ट अथवा हरी खाद जैसे सनई सजयेंचा को उर्वरकों के साथ आधी॰आधी एकीकृत विधि से प्रयोग किया गया है। जिससे उपज के साथ॰साथ भूमि में जीवांष पदार्थ तांबा गंधक लोहा जस्ता आदि भी उपलब्ध हो जाते हैं। जो कि भूमि की भौतिक दशा को सुधारते हैं। ध्यान रहे कि गोबर की खादए कम्पोष्ट को खरीफ में प्रयोग किया जाना उचित रहता है।
यह खाद काले रंग का मिटटी जैसी गंध वाला होता है। गांवों में जो परंपरागत खाद के गडे होते हैं उन्हीं का ठीक प्रकार से नियोजन इंदौर पद्धति के आधार पर किया जा सकता है। ध्यान रहे कि वर्षा के दिनों में खाद॰सामग्री की सुरक्षा के लिए छप्पर आदि का प्रबंध आवश्यक है।
नाड़ेप कम्पोष्ट विधि कृषि में विभिन्न रसायनिक उर्वरकों का उपयोग प्रारंभ से होता रहा है। इन रासायनिक उर्वरकों के असीमित प्रयोग से मृदा प्रदुषण जैसी समस्याओं ने जन्म लिया है। जिसके परिणाम स्वरूप भूमि की उर्वरा शकित का हास भूमि का कटाव तथा रासायनिक उर्वरकों के दिन प्रतिदिन अधिक उपयोग बने से भूमि को उस अनुपात में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा नहीं मिल पा रही है। जिससे भूमि के भौतिक रासायनिक गुण प्रभावित होकर भूमि अउर्वर होती जा रही है।

हरी खाद

हरी खाद का अर्थ उन पत्तीदार फसलों से है जिनकी वृद्धि शीघ्र होती है तथा काफी मात्रा में बड़ी होने पर फूल॰फल आने से पहले उन्हें जोतकर मिटटी में दबा दिया जाता है। यह फसलें सूक्ष्म जीवों द्वारा विच्छेदित होकर हयूमस तथा पौधों के पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि करती है और सस्य प्रणाली में ऐसी फसलों का उपयोग में आना हरी खाद देना कहलाता है ।
भूमि की उपजाऊ शक्ति बनाए रखने तथा उसमें निरंतर अच्छी पैदावार प्राप्त करने में मुख्य पोषक तत्वों की संतुलित इस्तेमाल के अलावा जैविक कार्बन अंश का विशेश महत्व है। परन्तु हमारे देश में वातावरण प्राय गर्म शुष्क रहने के कारण और खेती में जैविक खादों का आवश्यकता से कम इस्तेमाल होने के कारण हमारी भूमि में जैविक अंश की मात्रा प्राय काफी कम पायी जाती है। भूमि की उर्वरा शकित जीवाणुओं की मात्रा एवं किरयाशीलता पर निर्भर रहती है क्योंकि बहुत सी रासायनिक कियाओं के लिए सूक्ष्म जीवाणुओं की आवश्यकता रहती है । हरी खाद नाइट्रोजन तत्व काएक बहुमूल्य स्त्रोत है इसके साथ ही भूमि की भौतिक दशा में सुधार और जीवांश की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। हरी खाद के लिए सनई चना मूंग ग्वार लोबिया आदि फसलों का उपयोग किया जाता है। हरी खाद के लिए उपयुक्त फसल में निम्न लिखित विशताऐं होनी चाहिए । हरी खाद का पूरा लाभ लेने के लिए आवश्यक है कि उसमें फास्फेट वाली रासायनिक खाद लगाया जाए जिससे फसल में जड़ ग्रंथियों की संख्या अधिक हो जो वायुमंडल से अधिक नत्रजन लेकर इन ग्रंथियों में उनका सिथरीकरण कर सकें हरी खाद लगाने से अगली फसल मे फास्फेट की उपलब्धता बढ़ जाती है यह ध्यान रहे कि पलटने के समय पौधे मुलायम हो हर हालत में फूल आने के पूर्व पलटाई पूर्ण कर लें ।

हानिकारक कीटों का नैसर्गिक नियंत्रण ॰ 1

1॰ रोशनी के फन्दे
रोशनी के फन्दे खेत में लगाने से वयस्क कीटों को फसाकर नष्ट कर सकते हैं। इससे उनकी संख्या कम हो सकती है। उत्सगिन झब्झादीप लनटन और बिजली का बल्ब भी उपयोग कर सकते हैं। वयस्क कीट स्वभाविक क्षमता से रोशनी की ओर आकर्षित होता है। एक बड़ा सा बर्तन या प्लेट में मिटटी का तेल और पानी मिलाकर रोशनी के फन्दे के पास रखना चाहिए।
2॰ पीले गोंद फन्दे
इसके लिए साधारण रांगे की थाली लेकर उसके ऊपर पीले रंग की चढ़ाई कीजिए। इसके ऊपर आवसा या अरण्ड तेल को लगाना चाहिए। इसे खेत में 4 से 5 जगह पर लगाना चाहिए। सफेद मक्खी जैसे कीट पीले रंग से आकर्षित होकर उसमें चिपक जाते हैं।
3॰ पक्षियो के लिए खेत में लकडि़यां जोड़ना
खेत में सूंडी का प्रबंधन करने में छोटे पक्षियों का बड़ा योगदान होता है। उन्हें खेत में आकर्षित करने के लिए जैसे लकडि़यों को काटके रखना चाहिए। इनके ऊपर पक्षियां बैठते हैं और फसल में हाने वाली सूंडियों को खाते हैं ।
4॰ सूंडीयों को हाथ से पकड़के नष्ट करना
इसके लिए थोड़ा सा मिटटी का तेल एक पालीथीन लिफाफे में लेना चाहिए। शाम को श्रमिकों द्वारा सूंडियों को निकालकर मिटटी का तेल में डालना चाहिए। इसी तरह करने से रसायनिक कीटनाशकों के बिना कीट नियंत्रण कर सकते हैं।

हानिकारक कीटों का नैसर्गिक नियंत्रण ॰ 2

1॰ खेत और मेड़ को साफ करना खरपतवार नियंत्रण
जंगली घास और खरपतवार को मेड़ और खेत मे हाथों द्वारा निकाल देना चाहिए क्योंकि ये ही कीट की अण्डा देने की अवस्था में मुख्य कारक होते हैं ।
2॰ पौधों के बीच उचित अंतर रखना
रोपाई के समय प्रति 8 फुट के बाद 2 फुट का अन्तर छोड़ना चाहिए जिससे सूरज की रोषनी पौधे के निचले हिस्से तक पहुंचे। इससे फुदकों का नाश हो जाता है।
3॰ पौधों के जड़ तक धूप पहुंचना
तमिलनाडु के चेंगलपटटू जिले में नीककल पोडुम मुरै नाम की एक व्यवहार सालों से चल रहा है। इसमें स्त्रियां एक लैन में पौधों के बीच खड़े होते हैं। एक कोने से दूसरे कोने तक पौधे के निचली हिस्से को दबाते हुए चलते हैं।
4॰ सूंडीयों के नियंत्रण में डोरी का उपयोग
खेत में 6 से॰मी॰ तक पानी रखना चाहिए। उस पानी में 2 लिटर मिटटी का तेल मिलाना चाहिए। उसके बाद डोरी से पौधे के ऊपरी भाग को जोर से खींचना चाहिए।

सत्व का उपक्रम

परिचय

इस अंश में मूल पाठ में बताया गया कि अनेक सत्व का उपक्रम के बारे में विस्तृत सूचना प्राप्त है ।

पत्ते का निचोड़

इसके लिए आवश्यक मात्रा में पत्ते इकटठा करना चाहिए। पत्तों को पानी में रात भर भिगोके रखना चाहिए। अगले दिन पत्तों को पीसकर छानना चाहिए। प्रति एक लिटर निचोड़ में एक मिण् लिटर खादी साबुन पानी प्रनिलम्बक इमलसिफयर के रूप में मिलाना चाहिए। यह निचोड़ को पत्तों के पृष्ठ पर चिपकाने में मदद करता है।

बीज गरी का निचोड़

बीज गरी का निचोड़ बनाने के लिए आवश्यक मात्रा में बीज गरी को पीसना चाहिए। तब यह ध्यान में रखे कि उसमे से तेल नहीं निकलना चाहिए। चूर को मलमल कपड़े में बांधकर रात भर पानी में भिगोकर रखना चाहिए। अगले दिन थैली को दबाकर निचोड़ को निकालना चाहिए।
एक एकड़ में छिड़कने के लिये निम्नलिखित मात्रा में बीच गरी की आवश्यकता है।

खली का निचोड़

खली का निचोड़ बनाने के लिये आवश्यक मात्रा में खली लेना चाहिए। फिर उसे चूर करना चाहिए। चूर को मलमल कपड़े में बांधकर रात भर पानी में भिगोकर रखना चाहिए। अगले दिन थैली को दबाकर निचोड़ को निकालना चाहिए। इसमे प्रनिलम्बक एमलसिफयर के रूप में खादी साबुन पानी मिलाना चाहिए। प्रति एकड़ जमीन के छिड़कने के लियेए निम्ननिखित मात्रा में तेल की जरूरत है।

फसल चक्र के सिद्धान्त

फसल चक्र निर्धारण से पूर्व किसान को अपनी भूमि की किस्मए फसल किस्मए दैनिक आवष्यकताएं लागत का स्वरूप तथा भूमि की उर्वरा शकित को बनाएं रखने के उददेश्य को ध्यान में रखना चाहिए। अत फसल चक्र अपनाते समय निम्न सिद्धान्तों का अनुसरण करना चाहिए।
1॰ दलहनी फसलों के बाद खाधान्न फसलें बोई जाये
दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियां पाई जाती है जिनमें राइजोबियम जीवाणु पाये जाते हैं। हीमोग्लोबिन की उपस्थिति से ये वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का सिथरीकरण करती है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है जो कि आगे बोई जाने वाली फसलों के लिए उपयोगी होती है।
उदाहरण के लिए ॰ चना॰मक्का अरहर॰गेहूंए मेथी॰कपास मूग॰गेहूं लोबिया॰ज्वार आदि । इस हेतु रबी खरीफ या जायद में से किसी भी ऋतु में दलहनी फसल अवश्य लेना चाहिए ।
2॰ गहरी जड़ वाली फसल के बाद उथली जड़ वाली फसल के बाद उथली जड़ वाली फसल उगानी चाहिए था इसके विपरीत इस सीजन से फसलों को उगाने से भूमि के विभिन्न परतों से पोशक तत्वों पानी एवं लवणों का समुचित उपयोग हो जाता है । जैसे कपासण्मेंथी अरहरण्गेहूं चनाण्धान आदि ।
3॰ अधिक पानी चाहने वाली फसल के बाद कम पानी चाहने वाली फसल
मृदा में पानी एवं वायु का घनिष्ट सम्बन्ध होता है और किसी एक की मात्रा कम होने पर इसी अनुपात में दूसरे अवयव की मात्रा बढ़ जाती है। खेत में लगातार अधिक पानी चाहने वाली फसलें उगाते रहने से मृदा जल स्तर ऊपर आ जाएगा।
जैसे॰ गन्ना॰जौ धान॰चना या मटर आदि ।
4॰ अधिक पोषक तत्व चाहने वाली फसल के बाद कम पोषक तत्व चाहने वाली
फसलें उगाना चाहिए अधिक पोषक तत्व चाहने वाली फसलें लगातार एक ही भूमि में लगाते रहने से भूमि की उर्वराशक्ति का हास शीघ्र हो जाता है एवं खेती की लागत ब़ती चली जाती है। अत अधिक पोषक तत्व चाहने वाली फसलों के बाद कम पोषक तत्व चाहने वाली फसलों को उगाना चाहिए।
जैसे आलू॰लोबिया गन्ना॰गेहू आलू॰कददू वर्गीय आदि फसल चक्र ।
5॰ अधिक कर्षण कियायें भू॰परिष्करण या निंदाई॰गुड़ाई चाहने वाली फसल के बाद कम कर्षण किरयायें चाहने वाली फसल उगाना इस प्रकार के फसल चक्र से मृदा की संरचना ठीक बनी रहती है एवं लागत में भी कमी आती है। इसके अलावा निंदाई॰गुड़ाई में उपयोग किये जाने वाले संसाधनों का दूसरी फसलों में उपयोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है
जैसे मक्का॰चना आलू॰प्याज गन्ना॰मूंग आदि ।
6॰ दो॰तीन वर्ष के फसल चक्र में खेत को एक बार खाली या पड़ती छोड़ा जाये
फसल चक्र में भूमि को पड़ती छोड़ने से भूमि का उर्वरता में हो रहे लगातार हास से बचा जा सकता है। जवाहर लाल नेह कृषि विश्व विधालय एवं पूसा बिहार व अन्य अनुसंधान केन्द्रों में हुए परिक्षणों से स्पष्ट होता है।
जैसे॰ मक्का॰गेहूं॰मूंग॰ज्वार॰चना.पड़ती॰गेहूं तीन वर्षीय फसल चक्र
7॰ दूर॰दूर पंकितयों में बोई जाने वाली फसल के बाद घनी बोई जाने वाली फसल उगानी चाहिए वर्षा के दिनों में सघन एवं भूमि को आच्छादित करने वाली फसल लगाने से मृदा क्षरण कम होता है जबकि दूर॰दूर पंकितयों में बोई गई फसल से मिटटी का कटाव अधिक होता
जैसे॰ सोयाबीन॰गेहूं ।
8॰ दो॰तीन वर्ष के फसल चक्र में बार खरीफ में हरी खाद वाली फसल ली जाए इस प्रकार के सफल चक्र से भूमि की उर्वरा शकित बनी रहती है क्योंकि हरी खाद के लिए दलहनी फसल का उपयोग किया जाता है जो कि भूमि ये वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का सिथरीकरण करती है।
9॰ फसल चक्र में साग॰सब्जी वाली फसल का समावेष होना चाहिए ऐसा करने से किसान के घर में रोज की साग॰सब्जी की आवश्यकता की पूर्ति होती रहती है। अत इसके लिए खरीफ रबी या जायद की फसलों में से एक फसल सब्जी वाली होनी चाहिए।
जैसे . आलू प्याज बैगन टमाटर आदि ।
10 फसल चक्र में तिलहनी फसल का समावेष होना चाहिए घर की आवष्यकता को ध्यान में रखते हुए ऐसा फसल चक्र तैयार करना चाहिए जिसमें एक फसल तेल वाली हो ।
जैसे॰ सरसों मूंगफली आदि ।
11॰ एक ही प्रकार की बीमारियों से प्रभावित होने वाली फसलों को लगातार एक ही खेत में नहीं उगाना चाहिए फसलों का चक्र अपनाने से बीमारियों के जीवाणुओं या रोगाणुओं की संख्या नहीं बढ़ पाती है जिससे फसलों को हानि नहीं उठानी पड़ती है ।
12॰ फसल चक्र ऐसा होना चाहिए कि वर्ष भर उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग होता रहे फसल चक्र निर्धारण के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि किसान के पास उपलब्ध संसाधनों जैसे भूमि श्रम पूंजी सिंचाई इत्यादि का वर्ष भर सदुपयोग होता रहे एवं किसान की आवश्यकताओं की पूर्ति फसल चक्र में समावेषित फसलों के द्वारा होती रहे ।

फसल चक्र को प्रभावित करने वाले कारक

1॰ जलवायु सम्बन्धी कारक ॰ जलवायु के मुख्य कारक तापक्रम वर्षा वायु एवं नमी है । यही कारक जलवायु को प्रभावित करते हैं जिससे फसल चक्र भी प्रभावित होता है । जलवायु के आधार पर फसलों को तीन वर्गो में मुख्य रूप से बांटा गया है जैसे ॰ खरीफ रबी एवं जायद ।
2॰ भूमि संबंधी कारक भूमि संबंधी कारको में भूमि की किस्म मृदा उर्वरता मृदा प्रतिकिरया जल निकास मृदा की भौतिक दशा आदि आते हैं । ये सभी कारक फसल की उपज पर गहरा प्रभाव डालते हैं
3॰ सिंचाई के साधन सिंचाई जल की उपलब्धता के अनुसार ही फसल चक्र अपनाना चाहिए । यदि सिंचाई हेतु जल की उपलबधता कम है।
4॰ किसान की आर्थिक दशा किसानों की आर्थिक सिथति का भी फसल॰चक्र पर प्रभाव पड़ता है। किसान के पास पूंजी एवं संसाधनों की कमी होने से फसल चक्र में ऐसी फसलों का समावेश किया जाना चाहिए।
5॰ बाजार की मांग बाजर की मांग के अनुरूप फसलें ली जानी चाहिए जैसे शहर के नजदीक वाली भूमिओं में साग॰सब्जी वाली फसलों को प्राथमिकता देना चाहिए।
6॰ प्रक्षेत्र से बाजार की दूरी बाज की मांग एवं व्यापारिक दृषिट से ली गयी फसलों के लिए यह आवश्यक है कि बाजार प्रक्षेत्र के पास होना चाहिए।
7॰ आवागमन के साधन आवागमन के समुचित साधन उपलब्ध होने से फसल चक्र में सुविधा के अनुसार फसलों का समावेश करना चाहिए।
8॰ श्रमिकों की उपलब्धता कृषि में श्रमिकों का मुख्य कार्य होता है । यदि श्रमिक आसानी से व पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं तो सघन फसल॰चक्र अपनाया जा सकता है तथा फसल चक्र में नगदी फसलों को समावेशित लाभ लिया जा सकता है ।
9॰ खेती का प्रकार यदि खेती का मुख्य अंग पशु पालन है तो ऐसी जगह चारे वाली फसलें ली जायें ।
10॰ किसान की घरेलू आवष्यकताएं किसान को अपनी घरेलू आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर फसल॰चक्र अपनाना चाहिए।
11॰ सामाजिक रीति॰रिवाज फसलों के चुनाव पर सामाजिक विचारों का भी प्रभाव पड़ता है जैसे॰ प्याज लहसुन का सेवन न करने वाले किसान उन्हें उगाना नहीं चाहेंगे ।
12॰ राजकीय नियंत्रण  तम्बाकू अफीम भांग आदि की खेती पर आबकारी कर लगता है और अधिकांष लाभांष सरकार को देना पड़ता हैए इस कारण इन फसलों को किसान अपने फसल॰चक्र में नहीं लगाना चाहेंगे ।
इस प्रकार प्रत्येक राज्य में वहा की जलवायु एवं भूमि परिसिथति के अनुसार अलग॰अलग फसल चक्र अपना जा सकते हैं ।
फसल॰चक्र का जैविक खेती में भूमि की उर्वरता एवं खाध पदार्थो की शुद्धता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

पोषक तत्व प्रबंधन की देषज तकनीक

जैविक खेती में फसलों एवं पौधों को समुचित मात्रा में पोषक तत्वों की उपलब्धता के लिए विभिन्न प्रकार की देषज तकनीकों का उपयोग किया जाता है । सामान्य रूप से इन तकनीकों का उपयोग प्राचीनकाल से पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए किया जाता रहा है । देषज तकनीक के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थो पौधा अवशेशों जन्तु अवशेशों हरी खाद एवं केचु की खादों का प्रयोग किया जाता है।
1 गोबर की खाद का उपयोग भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए एफ॰वाय॰एम का प्रयोग सदियों से किया जा रहा है। गोबर की खाद एक परम्परागत कार्बनिक खाद है एवं यह कृषकों को आसानी से प्राप्त हो जाती है। प्रक्षेत्र एफ॰वाय॰एम॰पशुओं का ठोस एवं द्रव के साथ॰साथ उनके विछावन आहार अवशेश आदि का मिश्रण होता है ।
2 हरी खाद का उपयोग हरी खाद एक बहुत ही पुरानी एवं प्रभावकारी पोषक प्रबंधन तकनीक है। यह सस्ती एवं स्थानीय रूप से उपलब्ध मृदा उर्वरता को ब़ाने एवं पोषक तत्वों विशेशकर नाइट्रोजन की आपूर्ति करने का स्त्रोत है। हरी खाद के लिए हरी खाद फसलों को खेत में लगाया जा सकता है।
3 दलहनी फसलों को लगाना दलहनी फसलें उनकी वायुमण्डल से नाइट्रोजन सिथरीकरण की क्षमता के कारण ये मृदा में उर्वरता को भण्डारित करने का कार्य करती है। परम्परागत कृषि में जबकि रासायनिक उर्वरकों का उपयोगनहीं किया जाता था तब दलहनी फसलें ही मृदा को उर्वर बनाए रखने में अहम योगदान देती थीं।
4 फसल अवशेश उपयोग सामान्यतया धान गेहू व अन्य फसल की कटाई के पश्चात बहुत सा फसल अवशेश जो पौधों को पोषक तत्वों की आपूर्ति के साथ॰साथ मृदा की दशा को भी सुधारने में सहायक होता है । यह तकनीक कृषकों द्वारा आदि काल से अपनाई जा रही है ।
5 केचुआ खाद का उपयोग केचुआ खाद का उपयोग बहुत प्रचानीकाल से होता आ रहा है । जैविक खेती में पोषक तत्व प्रबंध हेतु यह सभी तकनीकी से उत्तम साबित हुई है । केचुआ खाद का उत्पादन केचुओं के द्वारा किया जाता है । प्रचीन कृषि में खेतों में विभिन्न प्रकार के जैव अवशेश केचुओं के लिए कियाशीलता में वृद्धि होकर प्राकृतिक केचुआ खाद खेतों को मिलती थी।
6 खलियों का उपयोग जैविक कृषि में पोषक तत्व प्रबंधन हेतु देषज तरीके से खाद एवं अखाद दोनों प्रकार की खलियों का उपयोग किया जा सकता है। खलियों में प्रचुर मात्रा में कार्बन के साथ॰साथ नाइट्रोजन एवं पोटाश पाया जाता है। नाइट्रोजन की मात्रा 2॰5 प्रतिशत महुआ खली में से 7॰9 प्रतिशत करड़ी खली तक पाई जाती है ।
7 अगिनहोत्र अगिनहोत्र जैव ऊर्जा का प्राचीनतम विज्ञान है। अगिनहोत्र तकनीक का उपयोग भारत में बहुत पुराना है। यह माना जाता है कि अगिनहोत्र कापर पिरामिड के पास असीम मात्रा में ऊर्जा एकत्रित हो जाती है।
8 अमृत पानी रू यह सकिय जैविक उत्प्रेरक है। इसके अंश मात्र से भूमि सकिय हो जाती है जिससे भूमि की उर्वरा शक्तति बढ़ती है ।

मृदा सुधार तथा सुधारक

प्रक्षेत्र मृदा में पोषक तत्वों की कमी एवं मृदा अम्लीयता के निर्धारण के लिए विभिन्न मृदा परीक्षण का सम्पादन करना चाहिए । इन परीक्षणों से यह सुनिषिचत किया जा सकता है कि मृदा को कार्बनिक रूप से संशोधित करने लिए मृदा में क्या उपयोग करना चाहिए ।
जैविक खेती की मुख्य अवधारणा मृदा सुधार एवं पादप वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति तर्क संगत तरीके से करना होता है। जैविक खेती की सफलता के लिए जैविक पदार्थो एवं प्राकृतिक खनिजों की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति कर मृदा सुधार करना बहुत अधिक महत्व रखता है।
कम्पोस्ट कम्पोस्ट में जलधारण की क्षमता एवं विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों की आपूर्ति क्षमता के कारण जेम्स क्रोकेटट ने इसे जीम बंततपमत कहा है।
बालू भारी मृदाओं में बालू को मिलाने से मृदा के जल निकास में सुधार होता है एवं मृदा ॰सजय़ीली हो जाती है जिससे जड़ों का विकास अच्छा होता है।
खाद कम्पोस्ट खाद भी एक जैविक मृदा सुधारक है। प्रक्षेत्र की जैविक मृदा को इसके द्वारा होने वाले लाभ सर्व विदित है।कम्पोस्टेट खाद पोषक तत्वों से परिपूर्ण गहरे रंग की होती है।
चूना खनिन प्रकि्रया का सह॰उत्पाद चूना अथवा चूना पत्थर सफेद चाक चूर्ण जैसा होता है इसका उपयोग मृदा की अम्लता को कम करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। चूना में कैलिसयम एवं मैग्नीशियम पाया जाता है जो मृदा पी॰एच॰ को कम करते हैं।
पीट मास पीट मास प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला हल्के भार का मास होता है। पीट मास मृदा में जल शोषक के रूप में कार्य करता है। यह मृदा की जल धारण क्षमता को नाटकीय रूप में में सुधार करता है।
लीफ मोल्ड लीफ मोल्ड कम्पोस्टेट पतितयों का मिश्रण होता है। प्रक्षेत्र में उपलब्ध पतितयों से बिना किसी लागत का जैविक मृदा सुधारक बनाया जा सकता है।
लकड़ी का बुरादा बुरादा अथवा लकड़ी के चिप्स का भूमि में उपयोग करने से मृदा जल निकास एवं मृदा संरचना में सुधार होता है। मृदा में बुरादा मिलाने से मृदा में वायु संचार बढ़ता हैए एवं यह हल्की हो जाती है। हरी खाद हरी खाद पौधों से प्राप्त की जाती है इसके लिए पौधों के हरे भाग या सम्पूर्ण पौधे को मृदा में दबा दिया जाता है । हरी खाद में अन्य पषु उत्पादों की खादों की अपेक्षा कार्बन एवं नाइट्रोजन का अनुपात अधिक होता है।
अच्छादन फसलें ऐसी फसलें जो नियमित फसलों के खेत में न होने पर हरी खाद के रूप में उगाई एवं जुताई कर खेत में मिला दी जाती है अच्छादन फसलें कहलाती है । आच्छादन फसलें यदि दलहनी होती है।
सजीव पलवार सजीव पलवार का उपयोग एक पुरानी कार्बनिक प्रकि्या है । सजीव पलवार खेत में खरपतवारों के दबाव को कम करती है एवं दलहनी सजीव पलवार मृदा में नाइट्रोजन की अतिरिक्त मात्रा को जोड़ती है ।

जैविक कृषि में खरपतवार प्रबंधन

जैविक खेती में खरपतवार प्रबंधन तकनीकों की विस्तृत विवेचना से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि खरपतवार क्या है अतः खरपतवार वह पौधा है जो कि किसी परिस्थिति में कृषि के लिए लाभदायक की तुलना में अधिक हानिकारक या क्षतिकारक होते हैं।
कृषि के प्रारंभिक समय से ही कृषक खेतों में उपस्थित खरपतवारों से संघर्ष करते रहे हैं । खरपतवार फसलों से जलए सूर्य प्रकाश स्थान और पोषक तत्वों के लिए प्रतियोगिता करके फसल उत्पादन को घटा देते है । जबकि दूसरी ओर कीट व्याधियों के लिए प्रश्रयी पौधों के रूपमें कार्य करते है । इसके अलावा फसल कटाई के समय परिपक्व खरपतवार भी साथ में आ जाते हैं।

खरपतवार नियंत्रण का क्रांतिक काल

यह फसल के जीवन चक्र का वह काल होता है जबकि फसल की उत्पादन हानि से बचाव के लिए फसल को खरपतवार मुक्त रखा जाता है। फसल के क्रांतिक काल के समय खरपतवारों का नियंत्रण करना इसके नियंत्रण का क्रांतिक काल कहलाता है। इस समय खरपतवारों के नियंत्रण से फसल उत्पादन का स्तर फसल को पूरे फसल काल में खरपतवार मुक्त रखने से उत्पादन स्तर के बराबर होता है ।

जैविक खेती के विकास में आने वाले व्यवधान

प्रारंभ के वर्षो में जैविक खेती के द्वारा कृषी करने पर उत्पादकता में कमी आ सकती है । उत्पादकता में आने वाली इस कमी के लिए राज्य शासन को तैयार होना होगा । यदि जैविक खेती की पद्धति पूर्ण ज्ञान एवं विशेशज्ञों के नियंत्रण में उपयोग में लाई जाए तो प्रथम वर्ष से ही उत्पादकता में वृद्धि देखी जा सकेगी ।
जैविक खेती के विकास के लिए उठाए गए अनुठे प्रयास से न केवल राज्य अपितु संपूर्ण विश्व को एक नई दिशा मिलेगी ।

संसाधनों का प्रबंध

उपराक्त पूंजीगत व्यय के लिए संसाधनों के प्रबंध के लिए वैश्विक स्तर प्रयास करने होंगे। वल्ड बैंक एशीयन डवलपमेंट में ऐसे संस्थाओं से वृतितय सहायता ली जा सकती है।

जैविक खेती एवं उत्पादकता में गिरावट

यह एक आम प्रचलित धारणा है कि जैविक कृषि की पद्धति अपनाए जाने पर प्रारंभ के वर्षो में उत्पादकता में गिरावट आएगी । किन्तु जैविक कृषि संबंधी ज्ञान के समुचित उपयोग द्वारा मृदा को आवश्यक पोषक तत्वों की समुचित मात्रा उपलब्ध करा दी जायेगी तो उत्पादकता में कमी का प्रश्न ही नहीं उठता ।

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